यह सांस्कृतिक अभियान है यह भी एक यज्ञ है
कला संगम 1962 से गायन, वादन, नृत्य, नाटक के उत्थान के प्रति दृढ़-संकल्पित रहकर कार्यक्रमों के माध्यम से भारतीय कला-संस्कृति के संवर्द्धन का प्रयास कर रहा है।
पहले गांव से लेकर शहर तक कलाकारों को मंच प्रदान होता था, चाहे वह रामलीलाएं हो या लोकनृत्य। तब गांव
के जमींदार जैसे धनाढ्य प्रोत्साहन कर कलाकारों को आगे बढ़ाते थे। अब वह परम्परा विलुप्ती के कगार पर है। सरकारी स्तर पर भी प्रयास सराहनीय नहीं है। आज के माहौल में रंगमच के प्रति उदासीनता बढ़ी है। हमें इसके आयोजन में काफी कठिनाई होती है। नाटकांे के प्रति इस हद तक
उदासीनता है कि अभिभावक अपने बच्चे-बच्चियों को इस और आने को प्रोत्साहित नहीं कर सकते हैं।
हम अपनी संस्था के सदस्यों के बल पर लगातार 19 वर्षों से कार्यक्रम करने सफल हो रह हैं। निःसंदेह इसमें शहर के गणमान्य व्यक्तियों, उद्योगपतियों एवं दोस्तों का सहयोग रहता है। विशेषकर इन तीन वर्षों में गांडेय विधायक जयप्रकाश वर्मा जी एवं सलूजा गोल्ड के अमरजीत सिंह सलूजा जी के विशेष योगदान के हम अभारी हैं।
कला संगम की स्थापना के 57वें वर्ष में संस्थापक सदस्य रंगमंच के समर्पित कलाकार रवींद्र प्रसाद सिंह का इस दुनिया से चला जाना, शोक का क्षण था। ऐस लगा कार्यक्रम स्थगित हो जायेगा। उस पर अचानक मेरा अस्वस्थ हो जाना और संसाधन के जुटान में भारी संकट को देखते हुए मानो कार्यक्रम स्थगित होने के कगार पर था, परंतु, हमारे उत्साहित कला संगम की टीम ने हमें सहयोग का भरोसा दिया, इसलिए निःसंदेह हम कहना चाहेंगे-
‘‘हर रोज गिरकर भी
मुकम्मल खड़े हैं…..
ए जिंदगी देख
मेरे हौसले तुमसे बड़े हैं।
हम इन्हीं हौसलांे पर आगे बढ़ते गये, सहयोगियों का दायरा बढ़ता गया, परंतु हर बार एक बात खटकती है, जब आप नाटक के आयोजन के लिए सहयोग मांगने जाते हैं तो न सिर्फ व्यंग्य सहना पड़ता है कि और कुछ नहीं सिर्फ नाटक ही आपको दिखता है। लोग यह नहीं समझते हैं कि यह संास्कृतिक अभियान है, यह भी एक यज्ञ है, भारत का भविष्य संवारने का।
आयोजक को आर्थिक व्यंग्य-वाण भी सहने पड़ते हैं, जिसके कारण हमारे कई प्रतिष्ठित साथी सहयोग मांगने के लिए निकलना नहीं चाहते, परंतु हम वैसे साथियों के बल पर कार्यक्रम करने मंे सक्षम होते हैं, जिन्हें अपनी प्रतिष्ठा इतर भी किसी दरवाजे में सहयोग मांगने जाने पर संकोच नहीं होता। रहीम कवि तो कह चुके हैं ‘रहिमान वे नर मर चुके जो कहीं मांगन जायं, पर उनसे पहले वे मुवे जिन मुख निकसत नाहीं।
हम इस हौसले के साथ भारत मां की सांस्कृतिक आंचल को संवारने में लगे हैं और हम कभी उनके आंचल को सुना नहीं होने दंेगे। हम रंगमंच के आंगन में लोकनृत्य, शास्त्रीय नृत्य, गायन-वादन की परम्परा को हौसले से जिंदा रखंेगे। 19वीं अखिल भारतीय नाटक शास्त्रीय, लोकनृत्य प्रतियोगिता के अवसर पर ‘सर्जना’ नामक स्मारिका का प्रकाशन कर आपके हाथ में देते हुए हम गौरवांवित महसूस कर रहे हैं। आपका सहयोग भविष्य में मिलता रहे, इसी अपेक्षा के साथ-
‘‘हौसले की तरकश में
कोशिश का वो तीर जिंदा रखो,
हार जाओ चाहे जिंदगी में सब-कुछ
मगर फिर से जीतने की उम्मीद जिंदा रखो।
-सतीश कुंदन
सचिव
कला संगम, गिरिडीह