‘रंगमंच की शमां को बुझने नहीं देंगे’
देश और दुनिया इस वर्ष कोविड-19 का काला अध्याय देख चुका है। सब कुछ ठप, मानो जीवन ठहर गया हो, पूरा भारत लॉकडाउन। सारी सांस्कृतिक गतिविधियां ठप, सिनेमा थियेटर, शादी-विवाह सब बंद। हारमोनियम और शहनाईयों की गूंज, तबले की ताल, ढोलक, मादर की थाप, गायकों का सूर बंद और रंगमंच सूना शांत था। कलाकारों के सामने कई तरह के संकट। ऐसे में राष्ट्रीय कार्यक्रम आयोजित करना और भी कठिन। परंतु कहा जाता है धारा के साथ तो लाश बहा करती है, जिंदा इंसान वही है जो धारा के विपरित तैरता है।
लगने लगा इस बार गिरिडीह में अखिल भारतीय नाटक, नृत्य प्रतियोगिता का आयोजन नहीं हो पायेगा। एक तो लॉकडाउन से बाजार की हालत खराब, उस पर कार्यक्रम का अनिवार्य खर्च। परंतु हमलोगों ने हौसला नहीं खोया। चुनौतियों से लड़ना मनुष्यों की सबसे बड़ी कला है। हम सभी ने ठाना कि कार्यक्रम कराना और आवश्यक है, क्योंकि एक वर्ष से कलाकार देशभर में उदास बैठे हैं। मंच नहीं मिल पा रहा है। उनकी आशाएं बुझ सी गयी थीं तो मैंने कहा रंगमंच की शमां को बुझने नहीं देंगे।
इन बुझे चिरागों से कहा दो
शमां आग से नहीं
इरादों से जलाई है मैंने।
और, हमने इरादा कर लिया कि 3 से 5 अप्रैल को कार्यक्रम कराना है और कला संगम के संरक्षक, पदाधिकारी, सदस्यों ने उतने ही उत्साह से हौसला आफजाई की।
ऋतुराज बसंत के आगमन से ही मनुष्य का मन प्रफुल्लित हो उठता है, जब झारखंड के प्लास की रंग-बिरंगी फूलों से ऐसे आच्छादित हो जाती है, मानो प्रकृति दुल्हन की तरह सज-धजकर फागुन रंग से सराबोर होकर ब्रज के रंगरसिया को आमंत्रित कर रहा हो और इसी से प्रेरित होकर हमने भी पूरे देश के कलाकारों को इस सांस्कृतिक महोत्सव के लिए आमंत्रण भेज दिया। परंतु, एक पल ऐसा लगने लगा कि काफिले का हर राही अपने-अपने दैनिक जीवन की व्यस्तताओं में खो गये। कार्यक्रम की व्यवस्था के लिए संसाधन को एकत्रित करने में अपने को अकेला महसूस करने लगे। मैं निराश हो चला था तो मेरे मन में भाव आया-
आज मैंने परछाई से
पूछ ही लिया,
क्यों चलती हो मेरे साथ?
उसने हंस कर कहा
दूसरा कोई है भी तो नहीं तेरे साथ।
परंतु ऐसा नहीं पीछे मुड़कर देखा तो पूरा संगठन आगे आया और काफिला निकल पड़ा। स्वाभाविक है, जब आप धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक कार्य में निकलेंगे तो बिना अर्थ के यह कर पाना किसी के लिए असंभव है तो ऐसे में लोगों की आलोचना का शिकार होना ही पड़ेगा। कुछ लोग इसे मेरा धंधा भी कह देते हैं तो कुछ लोग तो रसीद कुंदन तक आरोपित करते हैं, फिर भी।
आज हम राह में आलोचना के पत्थर फेंकने वाले लोगों का शुक्रिया अदा करते हैं, क्योंकि हमें बनाने वाले भी तो वही हैं। हां हम तो धंधा ही करते हैं देश की विभिन्न भाषा और संस्कृतियों को एक मंच पर लाने का, नाटक के माध्यम से। हम अभिव्यक्ति की
आजादी का अहसास कराते हैं। लोकतंत्र की सजग प्रहरी है। नाटक लोककलाओं और भारतीय संस्कृतियों को सहेजना भी तो एक काम है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कहा भी है कि मानव में यदि नैतिक बदलाव लाना है तो सांस्कृतिक क्रांति अनिवार्य है।
इस तरह के आयोजन की सफलता के लिए बढ़े हर हाथ मेरी बढ़ती सफलता के प्रेरणास्त्रोत हैं। हमारे संगठन के संरक्षक, पदाधिकारी, सदस्य एवं शहर के सुधी व्यवसायी वर्ग तथा प्रशासन के सजग प्रहरी और देशभर के संघर्षरत कलाकार आगे आईए और इस आयोजन में शामिल होकर देश के नवनिर्माण में अपना हाथ बंटाएं, क्योंकि
जब लकड़ी एक साथ जलती है तो
आग की लपटें तेज होती हैं,
अकेला लकड़ी तो सिर्फ धुआं ही देगी।
तो सांस्कृतिक अलख जगाने के लिए सब मिलकर मशाल बन जायें। जय रंगकर्म।
-सतीश कुंदन
सचिव
कला संगम, गिरिडीह