कला संगम: तब और अब
सन् 1961 में गिरिडीह के युवाओं में सांस्कृतिक चेतना प्रस्फुटित होने लगी थी। वह परवान चढ़ी 1962 में और फिर कला संगम के रूप में एक सांस्कृतिक संस्था का उदय हुआ। तब कविता पाठ, साहित्य लेखन से कला संगम ने अपनी कला यात्रा की शुरूआत की। गिरिडीह महाविद्यालय के उत्साहित युवकों को प्रोत्साहित किया हिन्दी के प्राध्यापक प्रो. रघुनन्दन प्यासा व डा. पारसनाथ मिश्रा ने. उन्हें संबल दिया तत्कालीन प्राचार्य बी. एन. सिन्हा एवं तत्कालीन एस. डी. ओ. तथा शहर के गणमान्य उद्योगपति विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी ने, जो तब प्रथम भोजपुरी फिल्म बनाकर राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद से सम्मानित किये जा चुके थे. इसी तरह ‘कला संगम’ की गतिविधियों से युवक, साहित्यकार, बुद्धिजीवी जुड़ते गए. फिर शुरू हुआ राष्ट्रीय त्योहार 15 अगस्त एवं 26 जनवरी को कॉलेज में नाटक मंचन का सिलसिला. शहर तथा सरकारी कार्यक्रमों के सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बना ‘कला संगम’. बाद में शुरू हुआ सभी विद्यालयों में नाटक और नृत्य की प्रस्तुति का दौर.
1962 में चीन का भारत पर आक्रमण और देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सहयोग का आह्वान- यदि किसी राष्ट्र को नष्ट करना हो तो पहले उसकी कला संस्कृति को नष्ट करो. ‘कला संगम’ के कलाकारों ने तब राष्ट्र को समर्पित तथा आर्थिक संसाधन जुटाने के लिए चीन स्मरणीय नाटक ‘नेफा की एक शाम’ नाटक का मंचन किया. फिर क्या था, नाटक मंचन की परिपाटी शुरू हो गई. रंगमंच में व्याप्त सन्नाटे को चीरने में ‘कला संगम’ ने एक हलचल पैदा की. तमाम आर्थिक झंझावतों को झेलते हुए पहली कार्यकारिणी का गठन 1964 में हुआ. कला संगम एक संगठन के रूप में उभरा. तब से आज तक उसकी कला यात्रा का रथ अविराम चलता रहा है. कला संगम ने अपने जीवन काल में जब बिहार में झारखंड का नाम उपेक्षित क्षेत्र के रूप में चिन्हित था, तब अविष्मरणीय नाटक मुक्त प्रकाश मंच में डा. धर्मवीर भारती द्वारा लिखित व नाट्य विद्यालय से एस.डी. स्नातक मिथिलेश राय द्वारा निर्देशित नाटक ‘अंधा युग’ का मंचन किया, जो तीन दिनों तक एक ही मंच पर दर्शकों को बांधे रखा. लेखक जिसमें स्वयं एक गूँगा भिखारी की भूमिका निभा रहा था.
जीवन में जिस प्रकार उतार चढ़ाव सदृश ‘कला संगम’ के समक्ष आया. 1990 का दशक जब मानों नेतृत्वकारी पीढ़ी थक चुकी थी. ‘कला संगम’ के संस्थापक सदस्यों में प्रो0 प्यासा, रवीन्द्र सिंह, आनन्द कुमार (सचिव) ने नए युग पर विश्वास करते हुए सचिव का पद सतीश कुन्दन को प्रदान किया. सचिव बनते ही कुन्दन ने कला संगम को एक नई पहचान दी. जिले से निकालकर राज्य व भारत स्तर तक इसे स्थापित किया. झारखंड राज्य के निर्माण के साथ ही रंगमंच को मानो पुनर्जीवित करने का संकल्प ले लिया। रंगमंच के प्रति समर्पित युवा मदन मंजर्वे ने राज्य स्तरीय हिन्दी नाटक प्रतियोगिता का प्रस्ताव किया, जिसमें साठ हजार रूपया जमा करने की चुनौती थी. 17 से 19 दिसंबर को तीन दिवसीय नाटक प्रतियोगिता की सफलता में तत्कालीन उपायुक्त के.बी.पी. सिन्हा और अनुमण्डल पदाधिकारी श्री मोहंती का अनन्य सहयोग मिला. कलाकारों का हौसला बढ़ता गया. फिर हर वर्ष यह कार्यक्रम ‘कला संगम’ के माथे का तिलक साबित हुआ. फिर पाश्चात्य संस्कृति के खिलाफ माहौल बनाने के लिए लोकनृत्य, लोकगीत, शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय नृत्य प्रतियोगिता आयोजित की गई। विद्या शंकर सहाय की स्मृति में कवि सम्मेलन, दिगम्बर प्रसाद की स्मृति में कला की उपाधि, शास्त्रीय संगीत के गुरू धर्मनाथ सिंह की स्मृति में गजल की शाम, गुरू, विरेन्द्र नारायण सिंह की स्मृति में कार्यक्रम, बच्चों में मूर्तिकला में अभिरूचि पैदा करने के लिए प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया. प्रो. शंभु शरण सिन्हा की स्मृति में ‘समर कैम्प’ जिसमें बच्चों के शास्त्रीय संगीत, नाट्य कला, कत्थक व लोकनृत्य का प्रशिक्षण पाँच दिनों तक दिया गया. अखिल भारतीय बहुभाषी नाटक व लोकनृत्य प्रतियोगिता को सफल आयोजन से ‘कला संगम’ ने पूरे देश में अपनी साख स्थापित की. उपायुक्त श्रीमती वंदना दादेल के सहयोग ने ‘कला संगम’ को निःशुल्क भवन उपलब्ध कराया, इस कारण शास्त्रीय संगीत, नृत्य नाट्य विद्यालय के संचालन का कार्य शुरू हो सका. अनुमण्डल पदाधिकारी द्वारा निःशुल्क धर्मशाला, नगर भवन उपलब्ध यदि नहीं कराया जाता तो हर वर्ष तीन सौ कलाकारों के ठहरने की व्यवस्था उपलब्ध नहीं करायी जा सकती थी. ‘कला संगम’ की इस कला यात्रा के सारथी रहे उपायुक्त के.बी.पी. सिन्हा, मणिकांत आजाद, राकेश रंजन, बी. के. अम्बष्टा, विरेन्द्र राम, वंदना दादेल, उपविकास आयुक्त गौरी शंकर प्रसाद, नरेन्द्र कुमार मिश्र, अनुमण्डल पदाधिकारी श्री मोहंती, श्री के. के. दास, श्री इकबाल आलम अंसारी, श्री कमलेश्वर प्र. सिंह का सहयोग अविस्मरणीय है. इसके साथ ही कला संगम के सदस्य और संरक्षक धनंजय सिंह, सुचि कुमार साहा, शंभु दयाल केडिया को ‘कला संगम’ ने कला साधकों को लाईफ टाईम एचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित कर अपने संगठन को एक नई पहचान दी. कला संगम ने सरकार द्वारा आयोजित सरकारी योजनाओं को नुक्कड नाटक द्वारा प्रचारित प्रसारित करने का कार्य किया है. अब इस संस्था ने पूरे देश में एक सक्रिय, जीवंत सांस्कृतिक संस्था की पहचान स्थापित कर ली. ‘कला संगम’ ने अपने जीवन काल में पत्रिका निकालने का सपना 2008 में पूरा किया। इस वर्ष कला संगम की स्मारिका ‘सर्जना’ का प्रकाशन हमारे लिए एक दस्तावेज का काम करेगा, जिसमें हमारे 50 वर्षों की कलायात्रा को समेटने का प्रयास है. स्मारिका 2011 के प्रकाशन के लिए पत्रकार श्री राकेश सिन्हा एवं उनके सहयोगी मित्रों का अनन्य सहयोग रहा. 2017 तथा 2018 की पत्रिका प्रकाशन में श्री राकेश सिन्हा, सुनील मंथन शर्मा तथा उनके सम्पादक मंडल ने बेहतरीन काम किया और एक स्तरीय स्मारिका का प्रकाशन किया. कला ला संगम’ पूर्ण जवान हो चुका है, सदस्य बढ़ गये हैं. संस्था को संरक्षण देने के लिए राजेन्द्र बगेडिया आगे आये. अपने 58 वें वर्ष में प्रवेश कर कला संगम देश के आधे राज्यों के कलाकारों को गिरिडीह की धरती में अखिल भारतीय बहुभाषी लघुनाटक, लोकनृत्य शास्त्रीय संगीत, कत्थक, नृत्य, भरतनाट्यम, बीहू, संथाली, झुमर, नुक्कड़ नाटक प्रतियोगिता का सफल आयोजन कर गौरवान्वित महसूस कर रहा है.
सतीश कुंदन